Tuesday, 12 July 2016

ज्ञानी, अज्ञानी और मूर्ख में भिन्नता - ||भर्तृहरि नीति शतकम – मूर्ख पद्धति वर्णनम – श्लोक 3||

||भर्तृहरि नीति शतकम – मूर्ख पद्धति वर्णनम – श्लोक 3||


संस्कृत श्लोक (original slok) अज्ञः सुखमाराध्यः सुखातारामाराध्यते विशेषज्ञः|
                                               ज्ञानलवदुर्विदग्धम ब्रह्मापि तं न रंजयति || ३!!

भावार्थ – अज्ञानी व्यक्ति को सहज ही समझाया जा सकता है, विशेष ज्ञानी को और भी आसानी से समझाया जा सकता है. परन्तु लेश मात्र ज्ञान पाकर ही स्वयं को विद्वान् समझने वाले गर्वोन्मत्त व्यक्ति को साक्षात् ब्रह्मा भी संतुष्ट नहीं कर सकते.  

 व्याख्या भर्तृहरि जी मूर्खों को परिभाषित करने की दिशा में आगे बढ़ते है और कहते हैं कि जो व्यक्ति ज्ञान से शून्य है उसे आसानी से समझाया जा सकता है. पिछले श्लोक में तो उन्होंने अपनी व्यथा को व्यक्त करते हुए संसारिक व्यक्तियों को तीन भागों में विभक्त कर दिया. और कहा की अज्ञानी व्यक्ति के समक्ष वह अपनी कवितायों को कैसे व्यक्त करें क्योंकि ऐसे व्यक्तियों को तो ज्ञान विज्ञान में कोई रूचि ही नहीं रहती. और यहाँ पर इन्ही ज्ञानी अज्ञानियों में थोडा भेद भी बता रहे हैं की ये व्यक्ति किस प्रवित्ति के होते हैं.
       कहते हैं कि जो अज्ञानी होते है अर्थात न तो उन्हें अक्षर ज्ञान ही होता है और न ही कोई अध्यात्मिक ज्ञान ही (परन्तु उत्सुकता का होना तो जरूरी है), ऐसे व्यक्तियों को अपेक्षाकृत आसानी पूर्वक समझाया जा सकता है क्योंकि उनमे ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा होती है. हम सबने देखा भी है की ऐसे व्यक्ति जिन्हें पढना लिखना नहीं आता और साधारण प्रवित्ति के होते हैं उन्हें जो भी अच्छी बातें बताई जाती हैं सामान्यतया वह उसे आत्मसात कर लेते हैं और ऐसे व्यक्ति ज्यादा तर्क-वितर्क भी नहीं करते. सदगुरु का सद्वचन समझकर ग्रहण कर लेते हैं. ऐसे व्यक्ति थोड़े अंधभक्त भी होते हैं. हमने अक्सर ऐसा होते देखा है की कोई प्रवचन करके, हाँथ की रेखाएं देखकर, भविष्य बताकर ऐसे लोगों को आसानी से अपने वश में कर लेता है. जो पहले से ही ज्ञानवान है बुद्धिशाली है उसे तो और भी आसानी से समझाया जा सकता है क्योंकि क्या अच्छा है और क्या बुरा वह पहले से भी जनता रहता है. तमाम का अनुभव और ज्ञान उसे पहले से ही होता है. किसी शास्त्र और विषय में चर्चा करते ही ऐसे व्यक्ति की समझ पहले से ही उन बिन्दुओं पर होती है. जब एक ही तरह के स्तर के बुद्धिजीवी साथ-साथ बैठते हैं और परामर्श और ज्ञान का अदन प्रदान करते हैं तो उन्हें एक दूसरे को समझने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती.
       परन्तु ऐसे व्यक्ति जो न तो पूरी तरह से पढ़े लिखे ही होते और न ही ज्ञान शून्य ही होते अर्थात जिन्होंने थोड़ा ज्ञान हासिल किया होता है और उसी में मतवाले हैं. ऐसे व्यक्ति उतने ही प्राप्त ज्ञान में समझते हैं की उन्होंने सब कुछ हासिल कर लिया है, ज्ञान प्राप्त करने वाले विभाग की वैकेंसी भर चुकी है और आगे का मात्र अजीर्ण है, और उनसे ज्ञानवान कोई नहीं है. वास्तव में यह अहंकार वाली स्थिति होती है और किसी भी व्यक्ति के साथ घटित हो सकती है. यह कम ज्ञानी, अधिक ज्ञानी और माध्यम ज्ञानी के साथ भी हो सकती है. इसीलिए कहा गया है की अहंकार सब दुर्गुणों की जड़ है. पर ऐसे भी विरले ही लोग होंगे जिनको ज्ञान, सोहरत, और मान-सम्मान पाकर तनिक भी अहंकार न स्पर्श करे. जब इस अहंकार का भूत हमे सवार हो जाता है तो हमारा दुर्भाग्य भी ठीक वहीँ से प्रारंभ हो जाता है. अपने अहंकार की तुष्टि के लिए न जाने हम क्या-क्या युक्ति करते रहते हैं और अपने झूंठे अहंकार को साबित करते रहते हैं. यह हम सबके साथ कई बार ऐसा होता है. तो यदि तर्कसंगत रूप से देखा जाये तो श्री भर्तृहरि जी जिस अल्प बुद्धि वाले थोड़े से ज्ञान से मदमत्त व्यक्ति की बात कर रहे हैं उन व्यक्तियों की पंक्ति में कहीं न कहीं हममें से अधिकतर अपने आपको जीवन के किसी न किसी पड़ाव में खड़े पाते है. यह सब अपने साथ भी होता है. जहाँ तक सवाल भर्तृहरि जी की परिभाषा के अनुरूप ज्ञानी होने का है तो वह भी भली-भांति परिभाषित नहीं है. क्योंकि ज्ञानी कौन है और कितना ज्ञान किस व्यक्ति को ज्ञानी बनाता है यह भी स्पष्ट नहीं है क्योकि सबसे बड़ी बात तो ज्ञान की कोई सीमा ही नहीं है यह ईश्वर की तरह ही अनंत है. तो जहाँ तक इस ज्ञानी वाले प्रश्न की बात है तो हम सबको यह ज्ञात होना चाहिए कि हम में से ज्यादातर लोग इस ज्ञानी वाली परिभाषा में फिट नहीं बैठते. कम से कम मैं अपने आपको ज्ञानी बिलकुल नहीं मानता और ज्यादातर अपने आपके उसी अहंकार वाले व्यक्ति की श्रेणी में ही खड़ा पाता हूँ जिसको थोडा अक्षर ज्ञान तो हो गया है पर यह अहंकार आगे ज्ञान मार्ग पर बढ़ने नहीं दे रहा है. प्रभु से प्रार्थना करें की वह हम सबको इस अहंकार की अज्ञानता के ऊपर उठाये और सद्ज्ञान मार्ग की तरफ जाने की प्रबल प्रेरणा देवें.
(बोलें महाकवि वैराग्यमूर्ति श्री भर्तृहरि जी महाराज की जै हो ...शिवानन्द द्विवेदी....क्रमस: )

 





   

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