||भर्तृहरि नीति शतकम – मूर्ख पद्धति वर्णनम – श्लोक २||
संस्कृत श्लोक (original slok) - बोद्धारो मत्सर्ग्रस्ता:प्रभव: स्मयदूशिता: |
अबोधोपहताच्श्रान्ये जीर्नमंगे सुभाषितम || २!!
भावार्थ – विद्वान् लोग ईर्ष्या से ग्रस्त हैं, समृद्धिशाली लोग अहंकार से उन्मत्त हैं और बांकी लोग अज्ञान से पीड़ित हैं: अतः मेरे सुभाषित मेरे ह्रदय में ही जीर्ण शीर्ण हो गए हैं.
व्याख्या – भर्तृहरि जी स्वयं एक राजर्षि थे. उनकी कहानी हमारे मध्य प्रदेश के उज्जैन से ही प्रारंभ होती है. आज कहीं भी इन्टरनेट में गूगल सर्च इंजन के माध्यम से इसे बड़ी आसानी से पाया जा सकता है. भर्तृहरि जी को प्रथमतः एक स्त्री से अतिशय प्रेम रहता है. वह उसके प्रेम में इतने आसक्त/दीवाने हो जाते हैं कि जब उनको पता चलता है कि वह स्त्री किसी और से प्रेम करती है तो उनको इस संसार की क्षणभंगुरता का एहसास हो जाता है, और उनको तत्काल वैराग्य हो जाता है. वह समस्त राजपाट छोंड़कर वैराग्य धारण कर लेते हैं. श्रीमद भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण जी ने कहा है कि आशक्ति के वसीभूत नहीं होना चाहिए यह अतिशय आसक्ति ही हमारे पतन का कारण है. तटस्थ भाव से सभी शुभ कर्मो में लीन रहकर जीवन यापन करने वाला व्यक्ति और ईश्वर को ह्रदय में धारण करने वाला व्यक्ति ही वास्तविक योगी है ऐसा उन्होंने श्रीमद भगवद गीता में अर्जुन के माध्यम से समझाया है. ऐसा व्यक्ति ही इस संसार सागर में कीचड़ में कमल की तरह रहकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर मोक्ष को प्राप्त करता है.
आईये मूल अव्यय में आते हैं और भर्तृहरि जी के उनके नीति शतक के प्रथम अध्याय के दूसरे श्लोक को समझते हैं. इस श्लोक में वह कहते हैं कि भर्तृहरि जी के पास बहुत कुछ है इस संसार को देने के लिए. उन्होंने जो अपने कठिन तपश्चर्या और वैराग्य से प्राप्त किया है वह सब इस संसार को देना चाहते हैं पर उसमे कुछ समस्या बताते हैं. समस्या यह है कि समाज में नीति को सुनने सुनाने की किसी के पास फुर्सत ही नहीं है. क्योंकि सम्पूर्ण श्रृष्टि ब्रह्म की माया के वसीभूत है.
इस माया में सत्य ओझल हो जाता है. क्योंकि यह माया असत्य द्वारा सत्य को छिपाने का भरपूर प्रयास करती है. काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, मद, मत्सर आदि यह सब माया के ही अंग हैं. माया इन्ही घोड़ों पर सवार होकर के श्रृष्टि में विचरण करती है. जब परम ब्रह्म ने श्रृष्टि का श्रृजन किया तब उन्होंने माया को स्याम ही उत्पन्न किया. क्योंकि बिना माया के और प्रकृति के इन दो विपरीत गुणों जैसे: सत्य-असत्य, लाभ-हानि, जय-पराजय, प्रेम-ईर्ष्या, अद्वैत-द्वैत, काम-वैराग्य, सुख-दुःख, न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, आदि द्वैत भावों के बिना श्रृष्टि का श्रृजन संभव ही नहीं था. इस प्रकार यह माया अपने द्वैत भावों से सत्य, धर्म, न्याय, प्रेम, दया, क्षमा, करुना, अहिंसा आदि दैविक गुणों को इनके विपरीत गुणों से ढक देती है. यदि कोई विद्वान् व्यक्ति है उसमे ईर्ष्या का भाव न हो तो वह सर्वदा पूज्य रहेगा, परन्तु इस माया के वसीभूत होकर जैसे ही विद्वता आयी वैसे ही व्यक्ति में प्रकृति के गुण स्वरुप ईर्ष्या आ जाती है. हमे लगता है की अगला व्यक्ति हमसे ज्यादा न जानने पाए और हमी विद्वान् बने बैठे रहें. सब हमारे ही ज्ञान की प्रसंसा करें और हमारा ही अनुकरण करें. ऐसे व्यक्तियों को दूसरे का ज्ञान और अच्छी धार्मिक बातें दिखावा और तुक्ष लगती हैं. इसलिए अपने आप को विद्वान् मानने वाले कहाँ भर्तृहरि जी के सुभाषितों को सुनेंगे यही पीड़ा भर्तृहरि जी व्यक्त कर रहे हैं. आगे कहते हैं कि जिनके पास समृद्धि आ जाती है अर्थात धन-वैभव आ जाता है तो ऐसे व्यक्तियों को लगता है कि यह विद्या और कवित्त क्या चीज़ है और यह सब पागलों का कार्य है और मात्र समय व्यर्थ में ही नष्ट करती हैं. इन विद्याओं और कवित्त से तो अच्छा यही है की पैसे को व्यापार प्रतिष्ठान में लगाया जाये जिससे और मुनाफा बढे, इन सब कवित्त विद्या आदि को तो हम अपने पैसे के दम पर कभी भी खरीद सकते हैं. ऐसे व्यक्ति अपने धन-वैभव के मद में ही उन्मत्त रहते हैं न तो उनको किसी विद्या की आवश्यकता महसूस होती और न ही किसी ज्ञान की. ऐसे व्यक्तियों के लिए धन वैभव ही सबसे बड़ी विद्या है और सबसे बड़ा ज्ञान है. यद्यपि यह बात सभी धनी और संपन्न व्यक्तियों के ऊपर लागू नहीं होती है, जैसा की हम वर्तमान समय में देख भी सकते हैं कि धनी और संपन्न व्यक्ति भी ज्ञान और विद्या के लिए प्रयास करते हैं और उसका सम्मान भी करते हैं. परन्तु एक बात तो सत्य है कि अपने धन-वैभव व्यवसाय को पीढ़ी दर पीढ़ी कैसे बढ़ाना है कैसे बरक़रार रखना है ज्यादातर समय और ऊर्जा इन महासयों की इसी में चली जाती है. परन्तु यह सुभाषित भर्तृहरि जी जब लिखे थे शायद तब स्थितियां ज्यादा खराब थीं. इस प्रकार वह आगे कहते हैं कि जो उक्त दो वर्गों (विद्वान् और समृद्धिशाली) से बचे शेष लोग हैं वह अज्ञान से पीड़ित हैं. यह अज्ञान है किस प्रकृति का? क्या भर्तृहरि जी के अज्ञान का तात्पर्य यहाँ पर किसी भी प्रकार के अक्षर ज्ञान के न होने से है? शायद ऐसा नहीं है. ज्ञानी और अज्ञानी की परिभाषा में, अज्ञानी ऐसे व्यक्ति तो हैं ही जीको किसी भी प्रकार का न तो अक्षर ज्ञान है और साथ ही अज्ञानी ऐसे भी लोग होते हैं जिनको अक्षर ज्ञान तो है, बांकी उनको अपने व्यवसाय और दैनिक कार्यों का भी ज्ञान है परन्तु ऐसे व्यक्तियों के पास अध्यात्मिक और नैतिक ज्ञान की कमी है इसलिए भर्तृहरि जी ने उन्हें अज्ञानी कहा है. मात्र कागज़ी, अक्षर और व्यावसायिक ज्ञान होना पर्याप्त नहीं है. समस्त सांसारिक ज्ञान तो हर एक पृथ्वी पर जन्म लेने वाले मानव को किसी न किसी तरह से मिल ही जाता है परन्तु अध्यात्मिक और नैतिक ज्ञान की दिशा में अग्रसर होना और ऐसे ज्ञान को अपनी जीवनचर्या में अपनाना सबसे बड़ा ज्ञान है. अतः भर्तृहरि जी का कहना कि शेष बचे हुए लोग अज्ञान से पीड़ित हैं का तात्पर्य उन अज्ञानियों से है जो नैतिक और अध्यात्मिक क्षेत्र में शून्य ज्ञान रखते है और नैतिकता की बातें ही नहीं सुनना चाहते. ऐसे लोगों को हम सबने समाज में यह कहते हुए ज्यादातर देखा है कि देखो यह बड़े चले आये संत/ज्ञानी बने व्याख्यान देने. अर्थात अज्ञानी वो हैं जिनमे सामने वाले किसी व्यक्ति के अच्छे विचारों तक को सुनने की सहिष्णुता नहीं है. और ऐसे ही व्यक्तियों को भर्तृहरि जी ने आगे चलकर “अल्प-ज्ञानी” या “अल्प-बुद्धि” बताया है और कहा भी है कि यह ऐसे मूर्ख होते हैं जिनको मानव तो मानव ही है ब्रह्मा भी संतुष्ट नहीं कर सकते.
इस प्रकार समाज को तीन वर्गों, विद्वान्, समृद्धिशाली और अज्ञानियों में विभाजित करने के बाद कवि कहता है कि लगता है की उनके जीवन पर्यंत की कड़ी मेहनत और फल को ग्रहण करने वाला कोई नहीं है.
वास्तव में कवि अपने ज्ञान को बाँटने का प्रयास तो यहाँ कर ही रहा है साथ ही इस सुभाषित के माध्यम से उसने अपने अनुभवों के आधार पर समाज में रहने वाले ज्यादातर लोगों को वर्गीकृत भी कर दिया है. और यह भी अकाट्य सत्य ही है कि ज्यादातर समाज ऐसे ही लोगों से भरा पड़ा है. (श्री सद्गुरु सच्चिदानंद महाराज की जै हो ...शिवानन्द द्विवेदी....क्रमश: )

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