Saturday, 17 June 2023

Breaking: ऐसा भ्रष्टाचार की गांववालो ने ही दिखा दिया, तकनीकी इंजीनियर की जरूरत नहीं रही // जो दिख रहा उससे आंख नहीं मूद सकते, // गोवर्दहा बांध के पिचिंग के पत्थर धसे कमीशनखोरी हुई प्रमाणित // जल संसाधन विभाग के भ्रष्ट कमीशनखोर अधिकारियों का कारनामा // संविदा कल्चर का नतीजा यह कि किसी की जवाबदेही भी तय करना हुआ मुस्किल // सब मिल बांट कर खाओ वाली कल्चर का हो चुका है आगाज // जनता किसके पास गुहार लगाए किससे शिकायत करें बड़ी विडंबना //

*Breaking: ऐसा भ्रष्टाचार की गांववालो ने ही दिखा दिया, तकनीकी इंजीनियर की जरूरत नहीं रही // जो दिख रहा उससे आंख नहीं मूद सकते, // गोवर्दहा बांध के पिचिंग के पत्थर धसे कमीशनखोरी हुई प्रमाणित // जल संसाधन विभाग के भ्रष्ट कमीशनखोर अधिकारियों का कारनामा // संविदा कल्चर का नतीजा यह कि किसी की जवाबदेही भी तय करना हुआ मुस्किल // सब मिल बांट कर खाओ वाली कल्चर का हो चुका है आगाज // जनता किसके पास गुहार लगाए किससे शिकायत करें बड़ी विडंबना //*
दिनांक 17 जून 2023 रीवा मध्य प्रदेश।

  जल जीवन जागरण यात्रा का दौर जारी है। इस बीच परंपरागत वाटर स्ट्रक्चर जैसे माइनर टैंक बांध जलाशयों, नहरों और तालाबों का निरीक्षण किया जा रहा है और उनकी भौतिक स्थिति का एक एक करके जायजा लिया जा रहा है। आपने पिछले कई एपिसोड में देखा कि किस तरह से रीवा जिले में जल संसाधन विभाग द्वारा बनाए गए माइनर टैंकों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है और जिम्मेदार पदों पर बैठे हुए वरिष्ठ इंजीनियर और अधिकारी कमीशन का खेल खेल रहे हैं। बांधों और नहरों के रखरखाव के लिए आने वाली जनता के टैक्स के पैसे की राशि का बंदरबांट कर लिया जा रहा है। 
  *गोवर्दहा बांध की स्थिति का एक आंकलन: पाइपिंग और गड्ढों के बाद अब पिचिंग की हालत खस्ताहाल*

  मऊगंज हनुमना क्षेत्र के गोवर्दहा माइनर टैंक का निरीक्षण किया गया जिसमें जल संसाधन विभाग के वरिष्ठ रिटायर्ड चीफ इंजीनियर एसबीएस परिहार और बाणसागर डैम के रिटायर्ड अधीक्षण अभियंता नागेंद्र प्रसाद मिश्रा के साथ एक्टिविस्ट शिवानंद द्विवेदी और आसपास के ग्राम क्षेत्र के गणमान्य नागरिक मौजूद रहे। निरीक्षण के दौरान गांव वालों ने गोवर्दहा बांध के पिचिंग एरिया में घुसकर एक-एक कर जल संसाधन विभाग के काले कारनामों की बखिया उधेड़ दी है। 
  *बाणसागर नगर मंडल और गंगा कछार से जुड़े हुए अधिकारियों की नींद हराम*

    पता चल रहा है कि जल संसाधन विभाग गंगा कछार में एसी की हवा खाते हुए अधिकारियों के नींद उड़ चुकी है और खेमे में खलबली मची हुई है। बताया जा रहा है कि इन अधिकारियों को सिर्फ एक ही डर सता रहा है कि कब उनके भ्रष्टाचार की पोल खोल का नंबर लगने वाला है। हालत यह है की कार्यपालन यात्रियों, अधीक्षण यंत्री और चीफ इंजीनियर को रात में नींद नहीं आ रही है और डॉक्टर से नींद की दवा तक लेने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। सूत्रों की माने तो संविदा कल्चर का लाभ उठाकर अपने आकाओं को मोटी रकम पहुंचाकर प्रभार में अधीक्षण अभियंता और चीफ इंजीनियर का पदभार खैरात में पाने वाले भ्रष्टाचारियों के ऊपर अब जांच भी बैठने वाली है। 
  *चुनावी वर्ष में सरकार की किरकिरी, अब मंत्रालय स्तर से गिरेगी कार्यवाही की गाज*

  जानकारी यह भी प्राप्त हो रही है कि जिस प्रकार से पूरा मामला महीनों से मीडिया और सोशल मीडिया में छाया हुआ है ऐसे में सरकार की काफी छवि खराब हो रही है और काफी किरकिरी भी हो रही है और ऐसे में मंत्रालय स्तर से कार्यवाही का दबाव बढ़ गया है। अब जाहिर है जिस जिले में स्वयं प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री आकर किसानों की आय दोगुनी करने की बातें कर रहे हो और फिर उसी जिले में भ्रष्टाचार का इतना बड़ा भंडाफोड़ हो जाए तो फिर यह समझने में देरी नहीं लगनी चाहिए कि स्थितियां क्या होंगी। यह तो स्पष्ट हो चुका है की इतना बड़ा गंगा कछार जल संसाधन विभाग और बाणसागर नहर मंडल के होते हुए विंध्य क्षेत्र और रीवा संभाग में किस प्रकार नहर परियोजनाओं और माइनर टैंकों का बंटाधार कर दिया गया। भाजपा सरकार ने अपनी छवि को दुरुस्त करने के लिए अब जिले के कलेक्टर को भी ग्राउंड पर उतार दिया है और आपने देखा कि कैसे पिछले दिनों रीवा कलेक्टर श्रीमती प्रतिभा पाल भी बीपीटी टैंक अर्थात ब्रेक प्रेशर टैंक रघुराजगढ़ सहित अन्य नहरों से संबंधित परियोजनाओं का निरीक्षण कर अधिकारियों को कड़े शब्दों में दिशा निर्देश भी दिए हैं। 
   आपको जानकर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि गांव के बुजुर्ग और आम नागरिकों ने भी जल संसाधन विभाग के काले कारनामों की एक-एक करके पोल खोल दी और बांध के अंदर और बाहर घुसकर इनकी एक-एक तकनीकी कमियों को उजागर कर दिया जिससे यह भली-भांति स्पष्ट हो गया की किस प्रकार भ्रष्ट कमीशनखोर अधिकारियों की मिलीभगत के साथ ठेकेदारों और जल उपभोक्ता समितियों ने रीवा के महत्वपूर्ण वाटर स्ट्रक्चर का बंटाधार कर दिया।
   आइए अब आपको कुछ वीडियो फुटेज और वरिष्ठ अधिकारियों और ग्रामीणों के बयान सुनाते हैं जहां यह स्पष्ट हो जाएगा कि किस प्रकार से जल संसाधन विभाग का भ्रष्टाचार जाने का नाम नहीं ले रहा है और जिम्मेदार पदों पर बैठे हुए मंत्रालय स्तर के आला अधिकारी मात्र अपने शेयर पर नजर गड़ाए हैं और मुंह में राम बगल में छुरी की माफिक ऊपर से तो किसानों की आय दोगुनी चौगुनी करने के कसीदे पढ़ रहे हैं लेकिन अंदर की सच्चाई कुछ और ही है जो सबको दिखाई जा रही है।
*स्पेशल ब्यूरो रिपोर्ट रीवा मध्य प्रदेश*

Tuesday, 12 July 2016

दुराग्रह से ग्रस्त मानव - ||भर्तृहरि नीति शतकम – मूर्ख पद्धति वर्णनम – श्लोक ४ ||


||भर्तृहरि नीति शतकम – मूर्ख पद्धति वर्णनम – श्लोक ४||

संस्कृत श्लोक (original slok) 

प्रसह्य मनिमुध्दरेंमकरवक्त्र्दंष्ट् आन्तरात|
समुद्रमापीसंतरेत प्रचाल्दूर्मिमाला अकुलम|
भुज्क़न्ग्मापीकोपितमशिरसीपुश्प्वादधारयेत|
न तुप्रतिनिविष्टि-मूर्खजन-चित्तमाराधयेत |||| 

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भावार्थ-  हो सकता है की कोई व्यक्ति घड़ियाल के मुख में स्थित दांतों से बलपूर्वक मणि निकाल ले; संभव है की कोई प्रचंड तरंगों से छुब्ध समुद्र को भी तैरकर पार करले; हो सकता है की कोई क्रोधित सर्प को भी पुष्प के सामान अपने सर पर धारण कर ले; परन्तु दुराग्रह से ग्रस्त मूर्ख व्यक्ति के चित्त को कोई भी संतुष्ट नही कर सकता| 
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 व्याख्या दुराग्रह का तात्पर्य होता है की किसी विषय या वास्तु के बारे में पहले से कोई निश्चित गलत ढंग की मानसिकता बना लेना. ऐसा व्यक्ति जो किसी की बात नही समझ सकता और थोड़े ज्ञान वाला है और दुराग्रह पूर्वाग्रह से ग्रस्त है वह अपनी सोची हुई बात पर बदलाव नहीं ला सकता. आज जो आतंकवाद फ़ैल चुका है यहभी कहीं न कहीं दुराग्रह और पूर्वाग्रह से ही ग्रषित व्यक्तियों के द्वारा किया जाने वाले कर्म है जिनको की समझा पाना बड़ा ही कठिन है. दुराग्रह से ग्रषित व्यक्ति कोलगता है की वहजो कर रहा हैबस वही भर सत्य है बंकि सब गलत है बेकार है. उसी की बात सब माने वही जोकहे बस वही सुने. ऐसी भावना बना लेना एक ऐसी स्थित है जिसे कोई बदल नहीं सकता और विशेष तौर पर ऐसे व्यक्ति के विषय में जो अल्प बुद्धि वाला अर्थात पूर्वाग्रह और दुराग्रह से ग्रस्त हो. इसी लिए श्री भर्तिहारी जी ने कहा है की असंभव से असंभव कार्य कर लेना आसान है पर ऐसे व्यक्तियों को समझा पाना बड़ा ही दुस्कर कार्य है. घड़ियाल के मुख में स्थित कोई भी वस्तु को निकाल पाना असम्भव के समान है क्यों कि कहा भी गया है की घड़ियाल के मुख में जो भी एक बार प्रवेश कर जाए वह वहां से जीवित नहीं लौट सकता है. जब समुद्र में ज्वार भाटा आ जाता हैऔर सुनामी वाली लहरें उठने लगती हैं तो समुद्र को तैरना तो दूर की बात है उसके नजदीक भी कोई बड़े से बड़े तैराक भी खड़े होने से घबराएंगे पर भार्तिहारी जी कहते हैं की शायद कोई ऐसे समुद्र को भी पार करले. इसी प्रकार क्रोधित सर्प जब अपने पूरे आवेग में होता है तो वह काल के समान प्रतीत होता है. उसके आसपास भीखड़े होने में भय प्रतीत होता है. क्रोधित सर्प कोनियंत्रि करना सपेरों के भी बस की बात नही होती है. कई बार इसमे भारी दिक्कतें आती हैं. पर फिर भी क्रोधित सर्प को नियंत्रित किया जा सकता है परन्तु फिर भी उसे गले में तत्काल नियंत्रण के बाद धारण करना तो असंभव जैसा कार्य है. परन्तु भर्तिहारी जी कहते है की ऐसा भी कार्य यदि संभव हो तो भी चलता.है, पर उनके अनुसार अल्प ज्ञान से मदमत्त व्यक्ति जो दुराग्रह से भी ग्रस्त है उसे समझा पाना इन सब उपमाओं से भी बड़ा दुस्कर कार्य है. वास्तव में देखा जाए तो मानव जीवन में ऐसे पड़ाव कई बार आते हैं जब हम किसी पूर्वाग्रह अथवा दुराग्रह से ग्रस्त होते हैं और ऐसा लगता है की हमी बस सही हैं और पूरा संसार गलत है. यह स्थिति काफी हद तक यहाँ पर चरितार्थ होती है. (शिवानन्द द्विवेदी, श्रीमद भगवद कथा धर्मार्थ समिति भारत....क्रमश:)

ज्ञानी, अज्ञानी और मूर्ख में भिन्नता - ||भर्तृहरि नीति शतकम – मूर्ख पद्धति वर्णनम – श्लोक 3||

||भर्तृहरि नीति शतकम – मूर्ख पद्धति वर्णनम – श्लोक 3||


संस्कृत श्लोक (original slok) अज्ञः सुखमाराध्यः सुखातारामाराध्यते विशेषज्ञः|
                                               ज्ञानलवदुर्विदग्धम ब्रह्मापि तं न रंजयति || ३!!

भावार्थ – अज्ञानी व्यक्ति को सहज ही समझाया जा सकता है, विशेष ज्ञानी को और भी आसानी से समझाया जा सकता है. परन्तु लेश मात्र ज्ञान पाकर ही स्वयं को विद्वान् समझने वाले गर्वोन्मत्त व्यक्ति को साक्षात् ब्रह्मा भी संतुष्ट नहीं कर सकते.  

 व्याख्या भर्तृहरि जी मूर्खों को परिभाषित करने की दिशा में आगे बढ़ते है और कहते हैं कि जो व्यक्ति ज्ञान से शून्य है उसे आसानी से समझाया जा सकता है. पिछले श्लोक में तो उन्होंने अपनी व्यथा को व्यक्त करते हुए संसारिक व्यक्तियों को तीन भागों में विभक्त कर दिया. और कहा की अज्ञानी व्यक्ति के समक्ष वह अपनी कवितायों को कैसे व्यक्त करें क्योंकि ऐसे व्यक्तियों को तो ज्ञान विज्ञान में कोई रूचि ही नहीं रहती. और यहाँ पर इन्ही ज्ञानी अज्ञानियों में थोडा भेद भी बता रहे हैं की ये व्यक्ति किस प्रवित्ति के होते हैं.
       कहते हैं कि जो अज्ञानी होते है अर्थात न तो उन्हें अक्षर ज्ञान ही होता है और न ही कोई अध्यात्मिक ज्ञान ही (परन्तु उत्सुकता का होना तो जरूरी है), ऐसे व्यक्तियों को अपेक्षाकृत आसानी पूर्वक समझाया जा सकता है क्योंकि उनमे ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा होती है. हम सबने देखा भी है की ऐसे व्यक्ति जिन्हें पढना लिखना नहीं आता और साधारण प्रवित्ति के होते हैं उन्हें जो भी अच्छी बातें बताई जाती हैं सामान्यतया वह उसे आत्मसात कर लेते हैं और ऐसे व्यक्ति ज्यादा तर्क-वितर्क भी नहीं करते. सदगुरु का सद्वचन समझकर ग्रहण कर लेते हैं. ऐसे व्यक्ति थोड़े अंधभक्त भी होते हैं. हमने अक्सर ऐसा होते देखा है की कोई प्रवचन करके, हाँथ की रेखाएं देखकर, भविष्य बताकर ऐसे लोगों को आसानी से अपने वश में कर लेता है. जो पहले से ही ज्ञानवान है बुद्धिशाली है उसे तो और भी आसानी से समझाया जा सकता है क्योंकि क्या अच्छा है और क्या बुरा वह पहले से भी जनता रहता है. तमाम का अनुभव और ज्ञान उसे पहले से ही होता है. किसी शास्त्र और विषय में चर्चा करते ही ऐसे व्यक्ति की समझ पहले से ही उन बिन्दुओं पर होती है. जब एक ही तरह के स्तर के बुद्धिजीवी साथ-साथ बैठते हैं और परामर्श और ज्ञान का अदन प्रदान करते हैं तो उन्हें एक दूसरे को समझने में ज्यादा दिक्कत नहीं होती.
       परन्तु ऐसे व्यक्ति जो न तो पूरी तरह से पढ़े लिखे ही होते और न ही ज्ञान शून्य ही होते अर्थात जिन्होंने थोड़ा ज्ञान हासिल किया होता है और उसी में मतवाले हैं. ऐसे व्यक्ति उतने ही प्राप्त ज्ञान में समझते हैं की उन्होंने सब कुछ हासिल कर लिया है, ज्ञान प्राप्त करने वाले विभाग की वैकेंसी भर चुकी है और आगे का मात्र अजीर्ण है, और उनसे ज्ञानवान कोई नहीं है. वास्तव में यह अहंकार वाली स्थिति होती है और किसी भी व्यक्ति के साथ घटित हो सकती है. यह कम ज्ञानी, अधिक ज्ञानी और माध्यम ज्ञानी के साथ भी हो सकती है. इसीलिए कहा गया है की अहंकार सब दुर्गुणों की जड़ है. पर ऐसे भी विरले ही लोग होंगे जिनको ज्ञान, सोहरत, और मान-सम्मान पाकर तनिक भी अहंकार न स्पर्श करे. जब इस अहंकार का भूत हमे सवार हो जाता है तो हमारा दुर्भाग्य भी ठीक वहीँ से प्रारंभ हो जाता है. अपने अहंकार की तुष्टि के लिए न जाने हम क्या-क्या युक्ति करते रहते हैं और अपने झूंठे अहंकार को साबित करते रहते हैं. यह हम सबके साथ कई बार ऐसा होता है. तो यदि तर्कसंगत रूप से देखा जाये तो श्री भर्तृहरि जी जिस अल्प बुद्धि वाले थोड़े से ज्ञान से मदमत्त व्यक्ति की बात कर रहे हैं उन व्यक्तियों की पंक्ति में कहीं न कहीं हममें से अधिकतर अपने आपको जीवन के किसी न किसी पड़ाव में खड़े पाते है. यह सब अपने साथ भी होता है. जहाँ तक सवाल भर्तृहरि जी की परिभाषा के अनुरूप ज्ञानी होने का है तो वह भी भली-भांति परिभाषित नहीं है. क्योंकि ज्ञानी कौन है और कितना ज्ञान किस व्यक्ति को ज्ञानी बनाता है यह भी स्पष्ट नहीं है क्योकि सबसे बड़ी बात तो ज्ञान की कोई सीमा ही नहीं है यह ईश्वर की तरह ही अनंत है. तो जहाँ तक इस ज्ञानी वाले प्रश्न की बात है तो हम सबको यह ज्ञात होना चाहिए कि हम में से ज्यादातर लोग इस ज्ञानी वाली परिभाषा में फिट नहीं बैठते. कम से कम मैं अपने आपको ज्ञानी बिलकुल नहीं मानता और ज्यादातर अपने आपके उसी अहंकार वाले व्यक्ति की श्रेणी में ही खड़ा पाता हूँ जिसको थोडा अक्षर ज्ञान तो हो गया है पर यह अहंकार आगे ज्ञान मार्ग पर बढ़ने नहीं दे रहा है. प्रभु से प्रार्थना करें की वह हम सबको इस अहंकार की अज्ञानता के ऊपर उठाये और सद्ज्ञान मार्ग की तरफ जाने की प्रबल प्रेरणा देवें.
(बोलें महाकवि वैराग्यमूर्ति श्री भर्तृहरि जी महाराज की जै हो ...शिवानन्द द्विवेदी....क्रमस: )

 





   

Saturday, 9 July 2016

भर्तृहरि नीति शतकम - अध्याय प्रथम (मूर्ख-पद्धति-वर्णनम) - श्लोक २


||भर्तृहरि नीति शतकम – मूर्ख पद्धति वर्णनम – श्लोक २||

संस्कृत श्लोक (original slok) -    बोद्धारो मत्सर्ग्रस्ता:प्रभव: स्मयदूशिता: |
                                               अबोधोपहताच्श्रान्ये जीर्नमंगे सुभाषितम || २!!

भावार्थ – विद्वान् लोग ईर्ष्या से ग्रस्त हैं, समृद्धिशाली लोग अहंकार से उन्मत्त हैं और बांकी लोग अज्ञान से पीड़ित हैं: अतः मेरे सुभाषित मेरे ह्रदय में ही जीर्ण शीर्ण हो गए हैं.

 व्याख्या  भर्तृहरि जी स्वयं एक राजर्षि थे. उनकी कहानी हमारे मध्य प्रदेश के उज्जैन से ही प्रारंभ होती है. आज कहीं भी इन्टरनेट में गूगल सर्च इंजन के माध्यम से इसे बड़ी आसानी से पाया जा सकता है. भर्तृहरि जी को प्रथमतः एक स्त्री से अतिशय प्रेम रहता है. वह उसके प्रेम में इतने आसक्त/दीवाने हो जाते हैं कि जब उनको पता चलता है कि वह स्त्री किसी और से प्रेम करती है तो उनको इस संसार की क्षणभंगुरता का एहसास हो जाता है,  और उनको तत्काल वैराग्य हो जाता है. वह समस्त राजपाट छोंड़कर वैराग्य धारण कर लेते हैं. श्रीमद भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण जी ने कहा है कि आशक्ति के वसीभूत नहीं होना चाहिए यह अतिशय आसक्ति ही हमारे पतन का कारण है. तटस्थ भाव से सभी शुभ कर्मो में लीन रहकर जीवन यापन करने वाला व्यक्ति और ईश्वर को ह्रदय में धारण करने वाला व्यक्ति ही वास्तविक योगी है ऐसा उन्होंने श्रीमद भगवद गीता में अर्जुन के माध्यम से समझाया है. ऐसा व्यक्ति ही इस संसार सागर में कीचड़ में कमल की तरह रहकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर मोक्ष को प्राप्त करता है.

      आईये मूल अव्यय में आते हैं और भर्तृहरि जी के उनके नीति शतक के प्रथम अध्याय के दूसरे श्लोक को समझते हैं. इस श्लोक में वह कहते हैं कि भर्तृहरि जी के पास बहुत कुछ है इस संसार को देने के लिए. उन्होंने जो अपने कठिन तपश्चर्या और वैराग्य से प्राप्त किया है वह सब इस संसार को देना चाहते हैं पर उसमे कुछ समस्या बताते हैं. समस्या यह है कि समाज में नीति को सुनने सुनाने की किसी के पास फुर्सत ही नहीं है. क्योंकि सम्पूर्ण श्रृष्टि ब्रह्म की माया के वसीभूत है.
      इस माया में सत्य ओझल हो जाता है. क्योंकि यह माया असत्य द्वारा सत्य को छिपाने का भरपूर प्रयास करती है. काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, मद, मत्सर आदि यह सब माया के ही अंग हैं. माया इन्ही घोड़ों पर सवार होकर के श्रृष्टि में विचरण करती है. जब परम ब्रह्म ने श्रृष्टि का श्रृजन किया तब उन्होंने माया को स्याम ही उत्पन्न किया. क्योंकि बिना माया के और प्रकृति के इन दो विपरीत गुणों जैसे: सत्य-असत्य, लाभ-हानि, जय-पराजय, प्रेम-ईर्ष्या, अद्वैत-द्वैत, काम-वैराग्य, सुख-दुःख, न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, आदि द्वैत भावों के बिना श्रृष्टि का श्रृजन संभव ही नहीं था. इस प्रकार यह माया अपने द्वैत भावों से सत्य, धर्म, न्याय, प्रेम, दया, क्षमा, करुना, अहिंसा आदि दैविक गुणों को इनके विपरीत गुणों से ढक देती है. यदि कोई विद्वान् व्यक्ति है उसमे ईर्ष्या का भाव न हो तो वह सर्वदा पूज्य रहेगा, परन्तु इस माया के वसीभूत होकर जैसे ही विद्वता आयी वैसे ही व्यक्ति में प्रकृति के गुण स्वरुप ईर्ष्या आ जाती है. हमे लगता है की अगला व्यक्ति हमसे ज्यादा न जानने पाए और हमी विद्वान् बने बैठे रहें. सब हमारे ही ज्ञान की प्रसंसा करें और हमारा ही अनुकरण करें. ऐसे व्यक्तियों को दूसरे का ज्ञान और अच्छी धार्मिक बातें दिखावा और तुक्ष लगती हैं. इसलिए अपने आप को विद्वान् मानने वाले कहाँ भर्तृहरि जी के सुभाषितों को सुनेंगे यही पीड़ा भर्तृहरि जी व्यक्त कर रहे हैं. आगे कहते हैं कि जिनके पास समृद्धि आ जाती है अर्थात धन-वैभव आ जाता है तो ऐसे व्यक्तियों को लगता है कि यह विद्या और कवित्त क्या चीज़ है और यह सब पागलों का कार्य है और मात्र समय व्यर्थ में ही नष्ट करती हैं. इन विद्याओं और कवित्त से तो अच्छा यही है की पैसे को व्यापार प्रतिष्ठान में लगाया जाये जिससे और मुनाफा बढे, इन सब कवित्त विद्या आदि  को तो हम अपने पैसे के दम पर कभी भी खरीद सकते हैं. ऐसे व्यक्ति अपने धन-वैभव के मद में ही उन्मत्त रहते हैं न तो उनको किसी विद्या की आवश्यकता महसूस होती और न ही किसी ज्ञान की. ऐसे व्यक्तियों के लिए धन वैभव ही सबसे बड़ी विद्या है और सबसे बड़ा ज्ञान है. यद्यपि यह बात सभी धनी और संपन्न व्यक्तियों के ऊपर लागू नहीं होती है, जैसा की हम वर्तमान समय में देख भी सकते हैं कि धनी और संपन्न व्यक्ति भी ज्ञान और विद्या के लिए प्रयास करते हैं और उसका सम्मान भी करते हैं. परन्तु एक बात तो सत्य है कि अपने धन-वैभव व्यवसाय को पीढ़ी दर पीढ़ी कैसे बढ़ाना है कैसे बरक़रार रखना है ज्यादातर समय और ऊर्जा इन महासयों की इसी में चली जाती है. परन्तु यह सुभाषित भर्तृहरि जी जब लिखे थे शायद तब स्थितियां ज्यादा खराब थीं. इस प्रकार वह आगे कहते हैं कि जो उक्त दो वर्गों (विद्वान् और समृद्धिशाली) से बचे शेष लोग हैं वह अज्ञान से पीड़ित हैं. यह अज्ञान है किस प्रकृति का? क्या भर्तृहरि जी के अज्ञान का तात्पर्य यहाँ पर किसी भी प्रकार के अक्षर ज्ञान के न होने से है? शायद ऐसा नहीं है. ज्ञानी और अज्ञानी की परिभाषा में, अज्ञानी ऐसे व्यक्ति तो हैं ही जीको किसी भी प्रकार का न तो अक्षर ज्ञान है और साथ ही अज्ञानी ऐसे भी लोग होते हैं जिनको अक्षर ज्ञान तो है, बांकी  उनको अपने व्यवसाय और दैनिक कार्यों का भी ज्ञान है परन्तु ऐसे व्यक्तियों के पास अध्यात्मिक और नैतिक ज्ञान की कमी है इसलिए भर्तृहरि जी ने उन्हें अज्ञानी कहा है. मात्र कागज़ी, अक्षर और व्यावसायिक ज्ञान होना पर्याप्त नहीं है. समस्त सांसारिक ज्ञान तो हर एक पृथ्वी पर जन्म लेने वाले मानव को किसी न किसी तरह से मिल ही जाता है परन्तु अध्यात्मिक और नैतिक ज्ञान की दिशा में अग्रसर होना और ऐसे ज्ञान को अपनी जीवनचर्या में अपनाना सबसे बड़ा ज्ञान है. अतः भर्तृहरि जी का कहना कि शेष बचे हुए लोग अज्ञान से पीड़ित हैं का तात्पर्य उन अज्ञानियों से है जो नैतिक और अध्यात्मिक क्षेत्र में शून्य ज्ञान रखते है और नैतिकता की बातें ही नहीं सुनना चाहते. ऐसे लोगों को हम सबने समाज में यह कहते हुए ज्यादातर देखा है कि देखो यह बड़े चले आये संत/ज्ञानी  बने व्याख्यान देने. अर्थात अज्ञानी वो हैं जिनमे सामने वाले किसी व्यक्ति के अच्छे विचारों तक को सुनने की सहिष्णुता नहीं है. और ऐसे ही व्यक्तियों को भर्तृहरि जी ने आगे चलकर “अल्प-ज्ञानी” या “अल्प-बुद्धि” बताया है और कहा भी है कि यह ऐसे मूर्ख होते हैं जिनको मानव तो मानव ही है ब्रह्मा भी संतुष्ट नहीं कर सकते. 
  
      इस प्रकार समाज को तीन वर्गों, विद्वान्, समृद्धिशाली और अज्ञानियों में विभाजित करने के बाद कवि कहता है कि लगता है की उनके जीवन पर्यंत की कड़ी मेहनत और फल को ग्रहण करने वाला कोई नहीं है.

      वास्तव में कवि अपने ज्ञान को बाँटने का प्रयास तो यहाँ कर ही रहा है साथ ही इस सुभाषित के माध्यम से उसने अपने अनुभवों के आधार पर समाज में रहने वाले ज्यादातर लोगों को वर्गीकृत भी कर दिया है. और यह भी अकाट्य सत्य ही है कि ज्यादातर समाज ऐसे ही लोगों से भरा पड़ा है. (श्री सद्गुरु सच्चिदानंद महाराज की जै हो ...शिवानन्द द्विवेदी....क्रमश: )

  





   

परम ब्रह्म की व्याख्या - (Explaining Supreme intelligence through Non-intelligence) भर्तृहरि नीति शतकम - श्लोक ||१||

||भर्तृहरि नीति शतकम – मूर्ख पद्धति वर्णनम – श्लोक १||

संस्कृत श्लोक (original slok) -   दिक्कालाद्यनवच्छिन्नानंतचिन्मात्रमूर्तये |
                                                 स्वनुभूत्येकमानायनम: शान्ताय तेजसे || १!!

भावार्थ - (approx. meaning) - मैं उस शांत तथा तेजस्वरुप ब्रह्म को नमस्कार करता हूँ, जो दिशा-काल आदि की सीमा से परे, अनंत, चैतन्य स्वरुप, केवल स्वानुभव के द्वारा ही बोधगम्य है.

व्याख्या - सामान्यतया हिन्दू-वैदिक संस्कृति में कोई भी सुभ कार्य करने के पहले ज्ञानी और तपस्वी ऋषि और बुद्धिजीवी श्रेष्ठ पुरुष ईश्वर के किसी न किशी स्वरुप को प्रणाम करते हैं, उसकी स्तुति करते हैं. जो भी उनके इष्टदेव होते हैं श्रेष्ठ पुरुष  उनके चरणों में प्रणाम करते हैं. यह भारतीय संस्कृति की सनातन और अमिट  परंपरा है. इसी तारतम्य में यहाँ पर राजऋषि एवं महान प्राचीन कवि भर्तृहरि जी अपना अति महत्वपूर्ण नीति-शतक काव्य ग्रन्थ प्रारंभ करने के पहले परम ब्रह्म परमेश्वर को प्रणाम कर रहे हैं उनकी स्तुति कर रहे हैं. वह ब्रह्म स्वरुप परमेश्वर के अन्य स्वरूपों भगवान विष्णु, भगवान शिव को अथवा जगदम्बा शक्ति की स्तुति कर सकते थे परन्तु यहाँ पर वह परम ब्रह्म परमेश्वर अर्थात एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति
(एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म) वाले स्वयम्भू स्वरुप की स्तुति करते हैं और अपना महान सौ श्लोकों का शतकग्रन्थ प्रारंभ करते हैं. 
           वेदों में गायत्री का एक अभिन्न स्थान है. गायत्री सभी मन्त्रों में श्रेष्ठ मन्त्र  माना जाता है. श्री राम शर्मा आचार्य जी ने गायत्री जी की उपासना एवं स्तुति में बहुत कुछ अनुभव किया और लिखा है और वह आज जग जाहिर है. गायत्री मन्त्र के अर्थ और भावार्थ ऋषि मुनियों ज्ञानियों द्वारा थोड़ा अलग-अलग व्याख्या किये गए हैं. गायत्री मन्त्र में उस परम ब्रह्म परमेश्वर के अद्वैत स्वरुप का वर्णन मिलता है. सभी उपाधियों से युक्त स्वयंभू वह परम ब्रह्म शांत और तेज स्वरुप है.  वह शांत है क्योंकि सारी रचनात्मकता शांति की स्थिति में आती है. कोई भी देव, मानव अशांति की स्थिति में रहकर लोकहित वाले रचनात्मक कार्य नहीं कर सकता है. और विद्या सम्बन्धी कार्य करने के लिए तो अत्यंत शांति की स्थिति चाहिए जहाँ व्यक्ति योगी स्वरुप होकर एकाग्र हो सके. यहाँ पर क्योंकि नीति सम्बन्धी बहुत महत्वपूर्ण ग्रन्थ पर कार्य होने वाला है इसलिए शांत बुद्धि का वातावरण चाहिए होगा. वह ब्रह्म शांत है जिस प्रकार ऋग्वेद में श्रृष्टि श्रृजन के पूर्व की स्थिति बताई गयी है. सब कुछ शांत था. नासदीय शूक्ति में यह बात आती है कोई हलचल नहीं थी ऐसी शांति का वातावरण. अतः वह ब्रह्म अद्वैत एवं शांत है विअसे ही जैसे माण्डुक्य उपनिषद् में उसे शिवम् शान्तं अद्वैतं बताया गया है. वह ब्रह्म तेज स्वरुप है. उसका तेज़ कोटि सूर्यों के तेज़ से भी बढ़कर है. उसके तेज़ के सामने कोटि सूर्य भी दीपक की तरह नज़र आते हैं ऐसा तेज़ है उस ब्रह्म का. वह ब्रह्म दिशा-काल आदि से भी परे है. परमेश्वर को दिशा और समय से नहीं बांधा जा सकता. वह कालातीत है. वह सभी दिशाओं में व्याप्त है, वह समय-काल से परे है. दिशाएं और काल उसकी मात्र कुछ विशेष गुणों (एट्रीब्यूट) में से हैं. ठीक वैसे ही जिस प्रकार एक मानव के कुछ विशेष  गुण होते हैं, पर मानव को गुण नहीं कहा जा सकता. जैसे मान के चलें की हमे कविता लिखना आता है या कि चित्र बनाना, तो कवित्त अथवा चित्रकार होना हमारे गुण हुए न की हम स्वयं. अतः इसी प्रकार वह ब्रह्म सर्वगुण संपन्न, काल-समय, दिशा से परे है. वह अनंत है, जिसका कोई अंत न हो. इस श्रृष्टि में जो भी जन्म लिया है उसका अंत है. जो दृश्य अथवा अदृश्य है उस सबका अंत है. मात्र ब्रह्म का अंत नहीं है. क्योकि वह श्रृष्टि के पहले भी था जब श्रृष्टि है तब भी है और जब यह दृश्य श्रृष्टि नहीं रहेगी तब भी रहेगा. उसके सभी गुणों की व्याख्याओं में से एक वह है जो ऋग्वेद की नासदीय सूक्ति में वर्णित है. जो भूत-वर्तमान-भविष्य के परे हो जिसका कोई अंत न हो वह अनंत है. जिसको समय-काल-दिशा में न बांधा जा सके वही अनंत है. जो हमारी मानवीय बुद्धि और सोच के भी परे हैं वह अनंत है.  उसके अनंत गुण विशेष के बाद वह सर्वथा चैतन्य भी है. अर्थात जो भूत-भविष्य-वर्तमान सभी अवस्थायों में कण-कण में व्याप्त हो, हर स्थान विशेष पर हर काल में विद्यमान रहे, सब कुछ देखने वाला हो,  हमारी नग्न आँखों से न दिखते हुए भी सभी काल, दिशा में व्याप्त हो. वह अनंत चैतन्य स्वरुप ब्रह्म कहलाता है.
       मानव और प्राणी की चैतन्यता मात्र निश्चित काल-समय और निश्चित  वस्तु विशेष के विषय में ही हो सकती है. सभी योनियों में मानव योनी को शास्त्रों में बौद्धिक क्षमता से युक्त कहा गया है. बांकी समस्त जीवों में मानव जैसी सभी इन्द्रियां (या सेंसेस) तो होती हैं पर तार्किक-इंटलीजेंस वाली सेंस नहीं होती, आज वर्तमान समय का भौतिक विज्ञान भी इस बात को मानता है. यह हमारे अन्दर जो बैद्धिक क्षमता है वही मानव को अन्य प्राणियों से अलग करती है और विशेष बनाती  है. हमारे धर्म और नीति शास्त्र भी कहते हैं कि आहार, निद्रा, भय, और मैथुन यह सभी प्राणियों में समान होता है. मात्र मानव की सोचने की तार्किक क्षमता और उसकी बुद्धि ही उसे सभी अन्य जीवों से अलग करती है.
               इस प्रकार वह ब्रह्म अनंत चैतन्य स्वरुप है. वह चैतन्यता सर्वव्यापी, सर्वकालाय है. इसीलिए हमारी सामान्य बोलचाल की भी भाषा में कहा जाता है कि ईश्वर सब कुछ देख रहा है उससे कुछ क्षिपा नहीं है. आखिर यदि ईश्वर मानव जैसे अथवा कोई भी अन्य जीव जैसे होता तो सब स्थानों पर सब कुछ सभी कालों में कैसे देख सकता था क्योंकि यह तो असंभव था? तो वह ब्रह्म क्या है? वह ब्रह्म सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, अनंत और परम चैतन्य है. वह न दिखते हुए भी है, और न होते हुए भी है. यहाँ पर न होने का तात्पर्य मानवीय समझ का “न” होना अर्थात “शारीरिक अथवा भौतिक” रूप में “न” विद्यमान होना है.  
        अब उस अनंत, चैतन्य, शांत, तेज़ स्वरुप परम ब्रह्म की प्राप्ति कैसे होगी? क्योंकि मानवीय समझ में तो प्राप्त उसे किया जाता है जो दिखता हो और जो हमारी इन्द्रियों के अंतर्गत आता हो. अब ऐसे ब्रह्म जो कि न होते हुए भी है, न दिखते हुए भी सब देख रहा है, जिसके प्रकाश से सम्पूर्ण ब्रह्मांड प्रकाशित है, और जो अनंत, दिशा-काल से परे है, ऐसे ब्रह्म की प्राप्ति कैसे होगी? इस पर कहते हैं कि उस परम ब्रह्म को मात्र भाव (स्वानुभाव) से प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि तार्किक बुद्धि से तो वह परे है,  क्योंकि बुद्धि और तर्क साधन हैं साध्य नहीं. वह स्व-अनुभव से ही प्राप्त किया जा सकता है. मानव जीवन में ऐसे बहुत से अनुभव होते हैं जब इस सांसारिक शक्तियों से परे अन्य शक्तियों का भी बोध मानव को होता है. क्या आपके साथ ऐसा कभी हुआ है? निश्चित हुआ होगा. जब हम अत्यधिक कष्ट में रहे होंगे और कोई सुनने वाला न रहा होगा उस स्थिति में हमे अचानक कहीं किसी अन्य लोक से जैसे मदद आ गयी हो. हमारा कहीं जीवन संकट में रहा हो और वह ऐसे बच जाये जैसे कोई असम्भव शक्ति ने ऐसा कर दिया हो. और तो और सबसे बड़ी बात यही है की जब हम इस क्षणभंगुर जीवन के विषय में गंभीर होकर सोचें और विचार करें कि कैसे इस अनंत समय की धारा में हम एक अनंत रेखा में स्थित एक बिंदु से भी अल्प हैं तब हमे आभास होगा की इस श्रृष्टि का निर्माणकर्ता और इसे बनाने/चलाने  वाला कौन है? कोई ऐसा है जो सब कुछ बहुत अच्छी तरह से जानता है कि उसने क्या बनाया है और क्यों बनाया है. इतना अच्छा सामंजस्य ग्रहों में, ऊसकी ऋतुओं में, उसके चाँद उसके तारों में, सभी जीवों में और यहाँ तक निर्जीवों में भी, यह सब कैसे हो सकता है? इस प्रकार की सोच और बुद्धि, योग, अनुभव से ही उस सत, अनंत चैतन्य, परम आनंद स्वरुप ब्रह्म को समझा और प्राप्त किया जा सकता है. हिन्दू-वैदिक संस्कृति में उसे प्राप्त करने के विभिन्न मार्ग भी बताये गएँ हैं, षड्दर्शन ग्रंथों में भी इन्ही मार्गों का अलग-अलग ढंग से वर्णन व्यक्ति की जिज्ञासा, रूचि और प्रकृति के आधार पर बताया गया है. भारतीय संस्कृति के ग्रंथों में छहों दर्शन शास्त्रों का एक विशेस स्थान है. (बोलो सद्गुरु परम ब्रह्म परमेश्वर की जय...शिवानन्द द्विवेदी ....क्रमशः...)